शिमला, 27 अक्टूबर, 2022 । कई दिनों से भारतीय राजनीति के बदलते स्वरूप पर कुछ लिखने का मन था, लेकिन हिम्मत नही हो रही थी। क्योंकि जिस संदर्भ में लिखना चाहता हूं, उसकी हिम्मत आज के बदलते परिवेश में करना थोड़ा मुश्किल है। क्या वास्तव में भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल गया है? हम जिन मूल्यों एवं उपगामो से भारतीय राजनीति को समझते है, क्या वो महत्वहीन हो गए है? इन सवालों पर आज शायद गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
लेकिन इसके लिए हमें चुनावी राजनीति से बाहर निकलकर राष्ट्र और राजनीति के आधारभूत ढांचे एवं स्थापित मूल्यों पर वस्तुनिष्ट नजर डालने की जरूरत है। वैसे तो परिवर्तन सृष्टि का नियम है और बदलते समय के साथ स्थापित मूल्यों के विपरित उत्पन्न हुए असंकीर्ण विचार को जगह देनी ही पड़ती है तभी एक समाज और राष्ट्र विश्व की प्रतिष्ठा एवं शक्ति की दौड़ में दूसरे राष्ट्रों, समाजों से आगे निकल सकता है। और इसी सिद्धांत से इतिहास का पहिया चलता है। लेकिन कहीं हम उन आधारभूत मूल्यों को तो नही खो रहे, जिन पर हमारा समाज और राष्ट्र खड़ा है, जिससे हमारी राष्ट्र के रूप में दुनिया में पहचान है। शायद इस द्वंद को वस्तुनिष्ठ परख से हल करने की जरूरत है।
एक राष्ट्र के रूप में और उस से पहले एक सभ्यता के रूप में भारत की पहचान कई मूल्यों पर आधारित है। हमने बड़े दंभ से अपनी प्राचीन सभ्यता के बहुमूल्य सिद्धांतो जिसमे वसुदेव कुटुंबकम, सर्व धर्म समभाव, विविधता में एकता जैसे अनेक बहुलतावादी मूल्यों को अपना आधार माना और एक राष्ट्र के रूप में अपनी यात्रा पूर्ण की।
इन्ही सिद्धांतो को आत्मसात करते हुए हमने अपना आदर्श चाणक्य के यथार्थवाद को न मानकर भगवान राम के आदर्शवाद को माना। इसी विविधता को विकसित करने के लिए मध्यकाल में दुनियां की संस्कृतियों को स्वीकाराऔर भारत को शिक्षा का, अनेक धर्मों का, संस्कृतियों का केंद्र बनाया। इसी विविधता को बचाने के लिए डेढ़ सौ साल तक स्वतंत्रता आंदोलन लड़ा और अंग्रेजो के सुझाए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ठुकरा कर गांधी के सुझाए सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर राजनीतिक राष्ट्रवाद को अपना लक्ष्य बनाया, और सुंदर विविधताओं से भरे राष्ट्र का निर्माण किया। कुछ यूरोपीय राष्ट्रवाद की संकुचित विचारधारा से प्रभावित लोग इस विविधता को राष्ट्र की कमजोरी एवं भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की पराजय मानते है, और अपना भविष्य हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के राष्ट्रीय सिद्धांतो से जोड़ने का प्रयत्न करते है। लेकिन यदि पाकिस्तान का देश एवं राष्ट्र के रूप में मूल्यांकन करे तो विविधता को खत्म करने प्रयास में, एक भाषा, एक धर्म के सिद्धांत पर चल कर दुनिया के मानचित्र पर एक विफल राष्ट्र के रूप में धब्बा बन गया। भारत ने उस विविधता को संजोया और दुनिया के उन साम्राज्यवादी दंभी राष्ट्रों को बताया की उनके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से कई गुना सुखद, सुदृढ़ हमारा राजनीतिक राष्ट्र है।
आजादी के उपरांत राष्ट्रीय आंदोलन से निकले राजनेताओं ने राजनीति को जनसेवा का पर्याय मानते हुए जनसरोकार को अपना लक्ष्य माना। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारतीय मूल्यों को बचाने के लिए विभिन्न चुनौतियों चाहे वो सम्यवादियो के द्वारा चीन की तर्ज पर साम्यवादी देश बनाने की कवायद हो या चरम दक्षिणपंथियों की देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की कोशिश हो, बखूबी इन चुनौतियों से निपटे और भारत को स्वतंत्रता, समता एवं न्याय पर आधारित धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी एवं कल्याणकारी राज्य की नीव मजबूत की।
भारतीय राजनीति में बहुतेरे ऐसे उदाहरण मिलेंगे जब जननेताओं ने आदर्शवाद और परित्याग की मिसाल रखी और सत्ता को ठुकरा दिया। 1996 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने पार्टी के सिद्धांतो के लिए प्रधानमंत्री पद ठुकरा दिया था। अटल बिहारी बाजपाई ने एक बार सदन में एक मार्मिक भाषण देते हुए सत्ता छोड़ दी और कहा की उस सत्ता को मैं छड़ी से भी छूना पसंद नहीं करूंगा जिसका आधार छल और कपट हो। 2004 में सोनिया गांधी ने पार्टी के मूल्यों के लिए सत्ता ठुकरा दी थी। अनेकानेक राजनेताओं के त्याग के उदाहरण भारतीय राजनीति के इतिहास में दर्ज है। मगर आज के बदलते राजनीतिक परिवेश में वो मूल्य कहीं धुंधले पड़ गए है। वैश्वीकरण एवं नव उदारवाद के दौर में व्यक्तिगत मूल्यों के साथ साथ सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों का भी ह्रास हुआ है। सत्ता का संघर्ष आज जनसरोकारो एवं वैचारिक और सैद्धांतिक आकांक्षाओं को रौंद कर आगे निकल रहा है।
घोर पूंजीवाद के दौर में सत्ता में बैठे लोगो के द्वारा वैचारिक संबद्धता के आधार पर चुने नेताओं के लिए जवाबदेही जैसे शब्द बेमानी से नजर आने लगे है। परिवर्तित राजनीतिक परिदृश्य को कुछ बिंदुओं में समेटने की कोशिश करुगा।
पहला; वैश्वीकरण एवं नवउदारवाद के दौर में जो आर्थिक संकट देश के सामने है उस पर नीतिनिर्माताओ का नियंत्रण न के बराबर है, और आज सत्ता पर बैठे लोग जनता के ध्यान को वास्तविक मुद्दो से भटकाकर धर्म और जाति के गैरजरूरी मुद्दो पर केंद्रित रखना चाहते है, जिस से सत्ता द्वारा अपनी विफलता को किसी अल्पसंख्यक समुदाय के सर मढ़ दिया जाए। चाहे इस से समाज का ताना बाना टूट जाए और वैमनस्य का वातावरण बने, लेकिन सामाजिक एकता से ज्यादा महत्वपूर्ण आज सत्ता का लालच बन गया है।
दूसरा; दल बदल आज एक राष्ट्रीय खेल बन चुका है। एक विचारधारा विशेष पर चुने हुए नेता कब लोगो की भावनाओं एवं विचारो को ठोकर मारकर विरोधी विचारधारा से जुड़ जाए, पता ही नहीं चलता। जिन विचारो एवं नीतियों को नकार कर जनता एक नए नेता को वैचारिक संबद्धता के आधार पर मत देकर संसद में भेजती है, उन्ही विचारो से सत्तालोलुप्तता के कारण स्नेह हो जाता है और बिना जनता की राय लिए नेता उसी विचारधारा को आत्मसात कर लेता है।
तीसरा; लोकतांत्रिक संस्थाओं का दुरुपयोग सत्ता पर बने रहने के लिए बेहिचक करना आज सामान्य चीज हो रही है। समाज के प्रबुद्ध लोगों और पूर्व न्यायधीशों के उठाए सवाल देशद्रोह के कटघरे में खड़े किए जा रहे है। सत्ता से सवाल करना आज सबसे बड़ा गुनाह बन चुका है। इसी तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं का अवमूलन एवं दुरुपयोग पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी अविवेकपूर्ण तरीके से किया और संवैधानिक मूल्यों को रोंदने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन जनता ने राजनीति में आदर्शवाद का दामन नहीं छोड़ा और इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर कर दिया।
चौथा; राष्ट्रवाद जिस की परिभाषा लोगो में एकता की भावना है, आज राष्ट्रवाद लोगो के बीच विभाजन की रेखा बन चुकी है। आज राष्ट्रवादी होने का प्रमाण मांगा जा रहा है। आज एक ऐसी संस्कृति का विकास हो रहा है, जिस से मतभेद मनभेद में परिवर्तित हो चुके है और सत्ता से मतभेद होने पर देशद्रोही का तमगा देकर पाकिस्तान जानें की नसीहत दी जाती है। आज राष्ट्रवाद एक विचार विशेष, एक दल विशेष की जागीर मानकर, राष्ट्रवाद की बहस को बहुत संकुचित किया जा रहा है।
पांचवा; मीडिया जिसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का दर्जा प्राप्त है, आज सत्ता के गलियारे में अपने रोजगार की तलाश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। लोकतांत्रिक मूल्यों का इतना पतन किसी भी लोकतंत्र के इतिहास में पहले कभी भी हुआ होगा। आपने शायद ही लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा देश देखा होगा जहां पर ज्ञान के उत्पादन का उद्देश्य सिर्फ झूठ परोसना हो, और उस झूठ के माध्यम से देश में समुदायों के बीच नफरत एवं हिंसा का वातावरण पैदा करना हो।
इन चिंताओं पर क्या कोई उम्मीद की किरण नजर आती है? वो उम्मीद की किरण मुझे व्यक्तिगत रूप से राहुल गांधी की ’भारत जोड़ो यात्रा’ में नजर आती है। यह यात्रा हमें महात्मा गांधी की 1930 की ऐतिहासिक सत्याग्रह यात्रा जो साबरमती से दांडी तक ब्रिटिश सरकार के नमक विरोधी कानून के खिलाफ की गई यात्रा का स्मरण कराती है। जिसने अंग्रेजी सत्ता की नींव हिला दी थी। एक तरफ इस यात्रा में नष्ट हो रहे लोकतांत्रिक, संवैधानिक एवं विभिधता के मूल्यों को बचाने का जज्बा नजर आता है, दूसरी तरफ स्थापित सत्ता जो यथार्थवाद के सिद्धांत को राजनीति में जीवंत करके पूरी राजनीतिक एवं सामाजिक संरचना को एकरूप बनाने की कोशिश कर रही है, उसे रोकने का मादा भी यात्रा में नजर आता है। आज देश की संस्थाएं अलोकतांत्रिक तरीको पर चलने को मजबूर हो रही है।
आज नव उदारवादी नीतियों के प्रभाव में पूंजीवाद का संकट राजनीतिक व्यवहार में भी नजर आ रहा है। इस आर्थिक संकट में सत्ताधीशों से समता और न्याय की उम्मीद लगाना बेमानी लगता है, लेकिन यदि देश की जनता आज संवैधानिक मूल्यों को बचाने के लिए लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने की प्रतिज्ञा ले तो, जर्जर हो रही मीनार को गिरने से बचाया जा सकता है। इसके लिए सांप्रदायिकता, जातीयता, क्षेत्रीयता और वैचारिकता के विभाजनों से ऊपर उठ कर एक होने की जरूरत है।