शिमला, 09 नवंबर, 2022 । पुरानी पेंशन बहाली के मुद्दे ने पहाड़ी राज्य में नवंबर माह के सर्द वातावरण में गर्माहट पैदा कर दी है। इस बार का चुनाव इसी मुद्दे की भेंट चढ़ता नजर आ रहा है। भाजपा जो प्रदेश में रिवाज बदलने के नारे के साथ आश्वस्त होती नजर आई थी, और कुछ राष्ट्रीय चैनलों ने आरंभ में भाजपा को सर्वो में अच्छी खासी बढ़त दी थी, मगर चुनाव की तारीख नजदीक आते आते समीकरण बिल्कुल उल्टे नजर आ रहे है। कांग्रेस साठ, भाजपा आठ का नारा सोशल मीडिया पे तेजी से ट्रेंड होने लग गया है। चुनावी पंडितो ने तो भाजपा के दहाई के आंकड़े को छूने पर भी प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
प्रदेश के दो लाख सरकारी कर्मचारियों पर प्रदेश की राजनीति केंद्रित नजर आ रही है। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में प्रमुखता से पुरानी पेंशन बहाली को गारंटी के रूप में प्रस्तुत किया, और पहली ही कैबिनेट में इसे प्रस्तुत करने की बात की है। माकपा और आप दलों ने भी अपने अपने घोषणापत्रों में इसी मुद्दे को प्राथमिकता दी है। एक कदम आगे बढ़ कर शिमला शहरी से माकपा प्रत्याशी ने तो यहां तक कह दिया कि जब तक पुरानी पेंशन बहाली नही होती वो वेतन नहीं लेंगे। लेकिन भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में इस मुद्दे को स्थान न देकर कर्मचारियों की एकता या चुनावी दखल को सिरे से नकार दिया है।
चुनावी घोषणापत्रों में तरजीहत देने और पुरानी पेंशन बहाली को राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव में निर्णायक मुद्दे के रूप में इस्तेमाल करने के अलावा पहाड़ी राज्य में इस मुद्दे पर एक अलग सी बहस शुरू हो गई है। सोशल मीडिया में कुछ लोग इसे महंगाई, राजकोषीय घाटे , रेवड़ी संस्कृति को बढ़ाने के कारण के रूप में प्रचारित कर रहे है। इस मुद्दे से प्रदेश में ध्रुवीकरण की कोशिशें की जा रही है, और कर्मचारी बनाम अन्य की राजनीति से चुनाव में करिश्माई नतीजों की अपेक्षा की जा रही है।
चुनावी बहस से दूर पुरानी पेंशन बहाली की मांग को एक सही दृष्टिकोण से समझने की जरूरत है। लोकतन्त्र में उत्तरदाई सरकारों की की भूमिका होती है? सामाजिक सुरक्षा और मुफ्तखोरी में क्या अंतर है? कर्मचारियों की पेंशन क्यूं जरूरी है? इन प्रश्नों पर समाज में एक सकारात्मक बहस होना आवश्यक है क्यूंकि हम एक “पोस्ट ट्रुथ एज” में जी रहे है जहां तर्क और ज्ञान से ऊपर भावनाओं और व्यक्तिगत आस्थाओं को महत्व दिया जा रहा है।
जब दुनिया में लोकतांत्रिक सरकारों की संरचना का खाका बना तो सरकारों को व्यक्ति के अधिकारों, सुरक्षाओं एवं जनकल्याण के लिए उत्तरदायी बनाया गया। यदि सरकारें उत्तरदायित्वों में असफल रहे तो उन्हे लोकतांत्रिक सरकारें कहना लोकतांत्रिक परंपराओं में अनुचित माना जाता है। सामाजिक सुरक्षा एक महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है, और सरकारों को हर पांच वर्ष के बाद जनता के दरबार में लेखा जोखा रखना पड़ता है, जिससे उनका राजनीतिक भविष्य तय होता है। मगर पूंजीवाद के प्रभाव में सरकारों की भूमिका कमजोर होने लगी है। सार्वजनिक क्षेत्रों का ह्रास होने लगा है। सामाजिक सुरक्षा जैसे विषयों पर सरकारें नीरस नजर आने लगी है। सरकारों को अब कार्यों का लेखा जोखा जनता के दरबार में न जाकर बड़े पूंजीपतियों के दरबारों में रखना पड़ता है, क्यूंकि इस पूंजीवादी संरचना में सरकारें परोक्ष रूप से जनता नही बल्कि कॉरपोरेट्स बनाते है।
दूसरा; लोकतांत्रिक देशों में वोटो की राजनीति समय के साथ साथ इतनी प्रभावशाली होने लगी है, जहां राजनीतिक दल लोकलुभावनवाद को तरजीहत देने लगे है। भारत में इसका आरंभ 1970 के दशक के गरीबी हटाओ, बैंको का राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्सेस के खात्मे के साथ हुआ । और गरीबी हटाओ के अभियान में लोगो को मुफ्त बांटने से देश को बड़े आर्थिक संकट में 1980 के दशक में डाल दिया था। आज लोकलुभावनवाद की राजनीति वैश्विक उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी देशों के दलों में प्रसिद्ध हो रही है। आज की भारतीय राजनीति में लोकलुभावावाद गहरे आर्थिक संकट में भी उलजलूल बंदरबांट के रूप में सत्ता प्राप्ति का सबसे आसान तरीका बन गया है। बड़े उद्योगपतियों को बेहिसाब कर्जे देकर बैंकों को बर्बाद किया जा रहा है। केंद्र और राज्य सरकारें भारी कर्जों में डूब रही है।
लेकिन कर्मचारियों की पेंशन, शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी जरूरी चीजों को लोकलुभावनवाद से जोड़ना नासमझी के अलावा कुछ भी नही है। दिन प्रतिदिन सार्वजनिक क्षेत्र का सिकुड़ना, सरकारों का जनकल्याण के मुद्दो से इतर होना, सरकारों का निजीकरण के दुष्परिणामों को नजरंदाज करके सिर्फ सकारात्मक पहलुओं को ही प्रचारित करना शायद हमारा उत्तरदाई सरकारों के सिद्धांतो से हटकर एक ऐसी व्यवस्था को निमंत्रण देना है, जहां नागरिकों की समानता, अधिकार एवं सामाजिक सुरक्षा दिवास्वप्न बन कर रह जायेगा। हमें शायद चुनावी राजनीति की दृष्टि से न देखकर पेंशन को तार्किक दृष्टि से देखना चाहिए।